
बंदर भैया बदले बदले
लटक-मटक कर चलते
कभी तो चलते सीधे सीधे
कभी घूम के पलटते
अम्मा पूछे, बेटा बंदर
अजब गजब हैं कपड़े पहने
नए नए से लगते हो तुम
हाथ कान में गहने पहने
बंदर बोला मैं तो अम्मा
कैटवॉक करूंगा
छोड़ूंगा पेड़ों पर चढ़ना
स्टाइल से चलूँगा
अम्मा बोली बंदर बेटा
क्या तेरे मन में आया
उछाल कूद छोड़कर यूं
बिल्ली बनना क्यों भाया
नेशनल दुनिया अख़बार में प्रकाशित यह कविता मेरी माँ ने लिखी है ।
14 comments:
आपकी लिखी रचना शनिवार 09 अगस्त 2014 को लिंक की जाएगी........
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
सुन्दर कविता
:) mammi ji k bandar bhaiya pasand aaye........
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (09-08-2014) को "अत्यल्प है यह आयु" (चर्चा मंच 1700) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बन्दर भैया पर भी फैशन का रंग चढ़ गया, भला वो कैसे पीछे रहते … बहुत सुन्दर कविता :)
बंदर बोला मैं तो अम्मा
कैटवॉक करूंगा
छोड़ूंगा पेड़ों पर चढ़ना
स्टाइल से चलूँगा
....... वाह! बहुत खूब....... उसको भी हवा लग गयी शहर की
.बहुत बढ़िया रोचक
बहुत बढ़िया चैतन्य
वाह भाई चैतन्य मजा आ गया ..बन्दर मामा की स्टाइल देख ...वैसे सच्ची अपना सारा गुण धर्म बदलना नहीं चाहिए न ..
भ्रमर ५
बहुत सुंदर...
बचपन जाग गया
बंदर बोला मैं तो अम्मा
कैटवॉक करूंगा
छोड़ूंगा पेड़ों पर चढ़ना
स्टाइल से चलूँगा
vaah kya baat hai majedar :)
बहुत खूब!
वाहा ....
क्या बात है
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
.. वाह! बहुत खूब....
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